भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में किशोर युवा सशक्तिकरण कार्यक्रम में सम्मिलित उन लोगों से प्राप्त कुछ चर्चाओं को बांटते हुए हमें प्रसन्नता हो रही है।

एक 15 वर्षीय प्रतिभागी ने अपने समुदाय में आँखों देखी दशाओं का वर्णन किया।

गाँव में सबसे खराब चीज़ जाति प्रथा है। लोग जाति के कारण झगड़ा करते हैं। मुझे ऐसा लगता है कि हमें अति शीघ्रता के साथ इस जाति प्रथा में परिर्वतन लाने की आवश्यकता है। हमें एकता में साथ-साथ रहना चाहिये। यहां इस कारण से झगडे होते हैं।
…उदाहरण के लिए, यदि कोई ऊंची जाति का है और आप नीची जाति के हैं, तो ऊंची जाति वाला आपको अपने घर में प्रवेश नहीं करने देगा। परन्तु, मैं इस प्रकार नहीं सोचती हूं। मैं सोचती हूं वे हमारे घर में आये, जिससे वे मेरे साथ बैठ सकें, मेरे साथ प्रार्थना करें। जैसा कि हमने (किशोर युवाओं) की पुस्तकों में पढ़ा है, हमें एकता में रहना होगा जिससे सभी पूर्वाग्रह समाप्त हो जायेंगे।

और यहां वह कैसे भविष्य को देखती है।

मुख्यतया मैंने सीखा कि अपने जीवन में हमें एक चुनाव करने की आवश्यकता होती है कि कैसे हम सेवा कर सकते हैं - कैसे हम अच्छे बन सकते हैं। हमें अपनी प्रतिभाओं को उजागर करने की जरूरत है और मैं सोचती हूं कि मैं एक शिक्षक बनूंगी। मैं बच्चों को ये चीजें सिखाऊंगी। मैं ऐसा करने का प्रयास करूंगी तथा मैं अब अपनी माँ के स्कूल में पढ़ा रही हूँ।

“सीधी राह पर चलना” की एक कहानी को याद करते हुए, एक 14 वर्षीय प्रतिभागी बताता है

…मैंने किताबों से सीखा कि हमें लगातार प्रयास करना चाहिए। यदि हम कुछ करने की कोशिश कर रहे हैं और हम संघर्ष कर रहे हैं, तो हमें इसे छोड़ कर घर नहीं चले जाना चाहिए। हमें अपने कार्य को पूरा करना चाहिए और तभी घर वापस जाना चाहिए। जैसा कि मेढ़कों की कहानी में था - हमें चीज़ों को उस प्रकार से करना होगा। पहला मेढ़क गिर गया और उसने पुनः प्रयास नहीं किया। दूसरे ने अपने मक्खन को मथने की कोशिश की और उसका परिणाम निकला। इस प्रकार, हमें भी ऐसे ही प्रयास करने होंगे… मैं इसे अपनी पढ़ाई पर लागू करने की कोशिश करती हूं - मैं निरन्तर प्रयास करती हूं और प्रगति करती रहती हूं।

एक अन्य युवा ने “सम्पुष्टि की सुरभि” से संदर्भ दिया

मैं सिर्फ खेलता था। मैं घर में कोई काम नहीं करता और न ही अपने माता-पिता के परामर्शों को सुनता था। मुझे पढ़ना पसन्द नहीं था और ना ही मैं इस पर ध्यान देता था। जब मैं इस कक्षा से जुड़ा और मुसुन्डा तथा रोज़ के अनुभवों को देखा कि वे कैसे पढ़ाई करते है और अपने माता-पिता के साथ रहते है, मेरा हृदय आकर्षित हुआ था। उस समय मैंने यह अन्तर्दृष्टि प्राप्त की कि हमें पढ़ाई शुरू करने से पहले अपने लक्ष्य चुनने की आवश्यकता है कि हम पढ़ाई करने के बाद हम क्या बनना चाहते हैं।

एक 16 साल का युवा, जो अबकिशोर युवा समूह के अनुप्रेरक के रूप में सेवा दे रहा है, अपने गांव में परिवर्तन की आवश्यकता का वर्णन करता है

मेरे गांव में अधिकांश लोग धार्मिक कट्टरवादी हैं और अधिकांश लोग हमेशा झगड़ा करने के लिए तैयार रहते हैं। वे छोटी-छोटी चीज़ों पर झगड़ा करते रहते हैं। एक सोचता है कि यदि कहीं छोटी सी जमीन का टुकड़ा है, वह अगर उस पर कब्जा कर ले, तो वह जमीन उसकी है... मेरे पास भी कुछ ज़मीन थी और उस पर कब्जा कर लिया गया। मेरे पिता ने मुकदमा दायर किया। फिर हमने मुकदमा वापस ले लिया क्योंकि वह व्यक्ति अपराधी और झगडालू प्रवृत्ति का था और हम लोग असहाय थे। गांव में पंचायत (गांव का परिषद) की सभा बुलाई गयी थी। सभा में अनेक लोगों ने कहा, “आप असहाय हो, मुकदमा खत्म कर दें।” अंतः मुकदमा खत्म कर दिया गया, इसके बाद सब ठीक था। हम लोग कुछ न कर सकें। मैं संतुष्ट था और मैंने इसे ईश्वर के ऊपर छोड़ दिया। जैसे जिसके कार्य हैं, वैसे उनके फल होंगे…
यह देखने के बाद मैंने सोचा, ’’क्या होता यदि यह इस प्रकार न होता? क्या होता यदि एकता और प्रेम होता और सेवा के ये विचार होते?’’ मैं गांव में इन सभी कार्यों के बारे में सोचता हूँ। ऐसा करने के लिए, हमें प्रगति करनी होगी, तो क्यों न मैं गाँव के विकास में मदद करूँ और इन परिवर्तनों को लाऊँ? इसलिए मैं अब इस दिशा में काम कर रही हूँ।

यहां उसकी कुछ योजनायें हैं

…अध्ययन के पश्चात् मुझे गांव के विकास में मदद करने की आवश्यकता होगी। मैं कुछ करना चाहता हूं जिससे गांव कुछ विकास कर सके तथा मैं अपने परिवार की भी मदद कर सकूं। अतः अब मैं अध्ययन कर रहा हूं, और इस संदर्भ में मैं सोचता हूं, मैं छोटे बच्चों की पढ़ाई में मदद करूंगा तथा इससे जो भी अल्प राशि मिलेगी इससे अपने घर में मदद करूंगा तथा अपनी व्ययों को पूरा करूंगा। मैं बच्चों को पढ़ाता हूँ तथा अपना अध्ययन भी करता हूँ।

एक 17 वर्षीय युवा, जो एक अनुप्रेरक के रूप में भी सेवा दे रहा है, बताता है कि उसने क्या किया जब उसका परिवार माध्यमिक शिक्षा के लिए उसकी सहायता करने में अक्षम था।

सम्पुष्टि की सुरभि में, चिसिम्बा के पिता अपनी नौकरी खो चुके थे, और मैंने उसके और गाॅडविन के उदाहरण के बारे में सोचा। मैंने यह सोचने का प्रयास किया कि ऐसा कौन सा कार्य है जो केवल मैं कर सकता हूँ और अन्य कोई नहीं कर सकता हो। ऐसे मुझे एक प्रिटिंग प्रेस में काम मिल गया जहाँ हर रोज 8 घण्टे काम कर मैंने अपनी पढ़ाई के लिए पर्याप्त पैसे बचा लिये। मैंने अपनी समस्याओं को गाँव के एक व्यक्ति को समझाया और उसने मुझे काम दिया। अब मैं 3 बजे प्रातः उठ जाता हूं, डेढ़ घण्टा पढ़ाई करता हूं इसके बाद अपना नाश्ता तैयार कर खाता हूं। प्रातः 6 बजे ट्यूशन जाता हूं और वहां 11 बजे तक रहता हूं। इसके बाद खाना खाकर, मैं 11:30 पर काम पर जाता हूं।

और एक युवा महिला, 21 वर्षीय है और अपने गांव में अनुप्रेरक के रूप में सेवा दे रही है, साथ ही अपने अध्ययन के दौरान बच्चों को पढ़ाती है। वह बताती है।

यहाँ बच्चे सातवीं कक्षा तक पढ़ते हैं, और उसके बाद वे अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए कहीं नहीं जाते। कुछ बच्चे पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं। मैंने घर पर ही कुछ बच्चों को ट्यूशन देना शुरू कर दिया। इस कक्षा में एक लड़की बहुत ही सफल रही। अपनी परीक्षा के बाद, उसने पड़ोस के गाँव के विद्यालय में दाखिला लिया और वह रोज विद्यालय आती जाती है। कुछ भी हो, वह हमेशा इस कक्षा में आती थी और मैं उसकी सहायता करती हूं।

एक और 20 वर्षीय युवा महिला ने बताया

जिस प्रकार से मेरे पहले समूह में अनुप्रेरक ने चीजों को बताया था और जिस तरह मैंने सीखा मैं भी एक अनुप्रेरक बनना चाहती थी। यह प्रत्येक व्यक्ति की जिम्मेदारी है कि उन्होंने जो सीखा है उसे दूसरों के साथ बाँटे - वह ही सर्वश्रेष्ठ है। बिल्कुल एक फूल की तरह, जब वह खिलता है, उसकी महक चारों ओर फैलती है और सभी कहते हैं, “यह कितना अच्छा फूल, कितनी खुबसूरत महक है” हमें भी ठीक ऐसा ही होना चाहिए- हमें लोगों तक पहुंचना चाहिए।

और, अंत में, एक 18 वर्षीय युवा, जिसने कार्यक्रम में युवा लड़की के रूप में प्रतिभागिता की और वह अब एक अनुप्रेरक के रूप में सेवा दे रही है, ने यह बताया

पहले, मेरा परिवार यह कहा करता था कि लड़कियों को बाहर नहीं जाना चाहिए। लेकिन अब वे कहते हैं, “नहीं, लड़के और लड़कियां बराबर है। वह बाहर जायेगी, पढ़ाई करेगी और सीखेगी।”